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कविता

सदी के बीच में

महेश वर्मा


चीख़ें अभी बुझी नहीं हैं और मांस जलने की चिरायँध
किसी डियोड्रेंट से नहीं जाने वाली,
पुराने जख़्मों की बात करना फैशन से बाहर की कोई चीज़ है -
हम दरवाज़ा बंद करना चाहते हैं
उस ओर और इस ओर के लिए।

कोई क्या करे लेकिन इन बूढ़ों का
जो मृत्यु के भीतर रहते थे और अब
उन्होंने उसे पहन लिया है त्वचा की जगह।

एक और बूढ़ा जो हमेशा पेट के बल सोता है धरती पर
वह अपने सीने के छेद में मिट्टी भर लेना चाहता है - वहाँ अब बारूद है।
एक और बूढ़ा बचपन का गीत याद करना चाहता है और
उल्टी करने लगता है इतिहास।

हमारे पास पुराने घर हैं जहाँ
दीवारों से राख झर रही होती है और खाली कमरों में भी नही गूँजती आवाज -

हम क्या करें इसका जहाँ गुलाब रोपने की खुरपी
निकाल लाती है एक कोमल हड्डी।
हमारे पास मोमबत्तियाँ हैं और दवाइयाँ
हम दरवाज़ा बंद करना चाहते हैं
अपनी ओर और उस ओर के लिए।


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